सच्चा प्रेम

पेड़ था मैं, खुश था ; अपने प्राकृतिक जीवन में
क्या हरा भरा था ,मस्त जी रहा था ; जीवन में
कोमल थी हर टहनी मेरी ,कोमल वो हर पत्ती थी
मस्त खिलता था  मेरा रोम-रोम हर उस किरण से
समानताएं बहुत थी उन सभी पेड़ों से जो फलदार थे
में फल फूल और खुशबू न दे सका हवा तो शुद्ध देता था
एक दिन वो मासूम खूबसूरत सी आरी चली मेरे तन पे
बस क्या था अब मैं बेबस था उस आरी के प्रेम तले
वो मुझे काटती रही और में निःशब्द था प्रेम में उसके
अब मेरा वो वक्त आया जब कुछ कम रहा उसका असर
पर वो कभी बेवफा नही रही ,में भी उसको समर्पित था
आज वो भी जंग खा गयी और में राख में अमर हो गया
                         अशोक त्रिवेदी
20/08/2019

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