तृष्णा (अशोक त्रिवेदी)





तृष्णा






एक छोटी सी चिड़िया उड़ती दूर-दूर ,कभी पूरब-पच्छिम कभी उत्तर-दक्षिण
सुबह से  लेके शाम तक पंखो को फैलाये उड़ती दूर गगन के छोर तक

कभी झुण्ड मैं चहचहाती,सरोवर मैं ये नहलाती
दूर-दूर उड़ती रहती तृण-तृण ये संचित करती

एक छोटी सी चिड़िया उड़ती दूर-दूर ,कभी पूरब-पच्छिम कभी उत्तर-दक्षिण
सुबह से  लेके शाम तक पंखो को फैलाये उड़ती दूर गगन के छोर तक

डाल-डाल पे चहचहाती कितना सुन्दर गीत ये गाती
इनकी बोली इनकी भाषा काश कभी हमको समझ आती  

एक छोटी सी चिड़िया उड़ती दूर-दूर ,कभी पूरब-पच्छिम कभी उत्तर-दक्षिण
सुबह से  लेके शाम तक पंखो को फैलाये उड़ती दूर गगन के छोर तक

सर्दी हो या गर्मी हो अंधड़ हो या आंधी  हो कितने दुःख ये सहती है
लेकिन फिर भी चुप ये रहती है ,लेकिन फिर भी चुप ये रहती है

अशोक त्रिवेदी 

   

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